August 5, 2010

मैं खुली आँखों से सपने देख रहा हूँ . . . .


मैं खुली आँखों से सपने देख रहा हूँ,

जिंदगी को आगे बढते देख रहा हूँ !

खुशियाँ, मंजिले अब पीछे छुट रही हैं,

अपने आप को दो कदम आगे देख रहा हूँ !


आज मुझे मंजिलों की उचाईयों से डर लगता है,

उन्हें न पाने का भ्रम लगता है !

पर सपने में उन्हें हराने का हौसला दिखता है,

अब मुझे सब कुछ सच लगता है !


अभी सारे साथी मुझे अकेला कर रहे हैं,

पर मुझे आगे बढ़ने का हौसला दे रहे हैं !

सपनो की दुनिया भी अजब कसक दे रही है,

कल वहाँ सबके साथ की कसम दे रही है !


रुकने का अब जी नहीं चाहता,

सपनो से बाहर अब मन नहीं मानता,

ये आखिर हो क्या गया मुझे,

कहीं मैं खुली आंखों से सपने तो नहीं देख रहा . . . .

pratik'